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हो ना ,, ना होना

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आकर्षण,कोई भी .. जब मुझे खींचता है.. और यदि मै जानता हूँ; इसे पाना सरल नहीं.... मै कठिन प्रयास करता हूँ.   अभीष्ट पा लेने पर दो बातें हो जाती है: एक तो प्राप्ति को छूता हूँ तो वह वैसा नहीं लगता, जैसा दूर से था..! ....और दुसरे ,  उस आकर्षण से गुजरते हुए, स्वयं को एक कठिन, विकासशील जाल में पाता हूँ, जो अनुभव को आकर्षण की प्रथम कल्पना से एकदम अलग कर देता है.   इसके उलट ; यदि किसी परेशानी में आ पड़ता हूँ, आकस्मिक , तो उससे पार पाते हुए लगता है जैसे  मै मुक्त हो रहा होऊं किसी अनदिखे जाल से .   समझ नहीं आता ; ...क्या होना ,कुछ ना होना है   ...और ना कुछ होना ही,कुछ हो जाना है.........??? #श्रीश पाठक प्रखर 

पहले पन्ने की कविता

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लिखूं,  कुछ डायरी के पृष्ठों पर  कुछ घना-सघन,  जो घटा हो..मन में या तन से इतर.  लिखूं, पत्तों का सूखना  या आँगन का रीतना   कांव-कांव और बरगद की छांव शहर का गांव में दबे-पांव आना या गाँव का शहर के किनारे समाना या, लिखूं माँ का साल दर साल बुढाना, कमजोर नज़र और स्वेटर का बुनते जाना, मेरी शरीर पर चर्बी की परत का चढ़ना   मन के बटुए का खाली होते जाना.  ................................................................................ ................................................................................ ................................................................................ इस डायरी के पृष्ठों पर समानांतर रेखाएं हैं;  जीवन तो खुदा हुआ है , बर-बस इसपर.  अब, और इतर क्या लिखना..! #श्रीश पाठक प्रखर