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नवंबर, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

तुमसे...!!!

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सुबह एक अनगढ़ गजल सी रचना डाल थी, मैंने.."अब सवाल ज्यादा सुकून देते हैं.." उस वक़्त भी जानता था कि इसमे ठीक-ठाक कमियां हैं..आदरणीय गिरिजेश राव साहब ने एक मीठी झिड़की दी मेल पर और फिर उसी रचना को अपने यत्न भर फिरसे गढ़ने बैठ गया. बड़े भाई श्री अमरेन्द्र जी की सम्मति ली और इसे एक नए पोस्ट के रूप में फिर से डाल रहा हूँ. इस बार शीर्षक भी बदल दिया है... तुमसे...!!! १. तेरे सवाल अब ज्यादा सुकून देते हैं.  दहकते शोलों से ज्यादा जुनून देते हैं. २.सुब्ह-ए-वक़्त में मिलते हो ग़मज़दा होकर.       तेरे  अंदाज  भी  गैरों  का  यकीं  देते  हैं. ३.मुझे खुशियों में भी बेशक हंसा ना पाते हो.       तुम्हारे कह-कहे आँखों को नमी देते हैं. ४.तुम अँधेरा भी नहीं दे सके सोने के लिए.      ख्वाब तनहाइयों के हैं जो जमीं देते हैं. ५. भले खफा हो पर अंदाज कनखियों के तेरे.        कुछ न देकर भी मुझे यार, बहोत देते हैं. #श्रीश पाठक प्रखर  चि त्र साभार:गूगल 

अब सवाल ज्यादा सुकून देते हैं.

मुझे पता है कि मै बस लिखने लगता हूँ. ईमानदारी से मुझे शिल्प का अभ्यास नहीं है. गलतियाँ बर्दाश्त करियेगा..और बदले में मुझे एक मुस्कान दीजियेगा... अब सवाल ज्यादा सुकून देते हैं. अब सवाल ज्यादा सुकून देते हैं. राख, शोलों से ज्यादा जुनून देते हैं. यार तुम,खिलो सहर में भी शायद, गैर वो हर वक़्त चुभने का यकीं देते हैं. हमारी खुशियों में भी बेशक हंसा ना पाते हो, तुम्हारे कह-कहे आँखों को भरपूर नमी देते हैं. अँधेरे भी ना दे सको तुम मुझे सोने के लिए, बेदर्द तन्हाईयाँ ही इसके लिए क्या खूब जमीं देते हैं. मेरी  साख  पर नज़र है शिद्दत से तुम्हारी, तुम्हारी कनखियाँ मुझे फिरसे वजूद देते हैं. #श्रीश पाठक प्रखर  चित्र साभार:गूगल 

कि;

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आज एक बेहद हलकी सी कुछ पंक्तियाँ.. कि; कि; वे दोनों एक-एक जगह के रईस हैं..! कि; उन दोनों की पहुँच बाकी की पहुँच से बाहर है..! कि; वे दोनों एक दूसरे को अपनी बता देना चाहते हैं..! कि; दोनों सामने वाले को अपने सामने कुछ नहीं समझते हैं..! बाकी; उन दोनों को खूब जानते हैं..! कि; पीकर दोनों रोज शाम को झगड़ा करते हैं..!!! #श्रीश पाठक प्रखर  चित्र-साभार:गूगल 

यूँ ही बस इधर-उधर विचरना मन का

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डायरी के पन्नों में क्या कुछ आ जाता है..कई बार उसकी कोई खास वज़ह नहीं होती, यूँ ही बस इधर-उधर विचरना मन का...कोई सन्दर्भ- प्रसंग नहीं..बिलकुल ही उन्मुक्त....उनमे से कुछ आपके समक्ष... किस्मत से मै भिखारी हूँ  और किस्मत से ही मुझे  भीख मिलती है. वरना  'आगे बढ़ो' की सीख मिलती है..!!! सिद्धांत एक ऐसा पुरुष है, जिसे कभी भी एक पतिव्रता नहीं मिलती..!!!  "जान लेकर करता है  खामोशी की शिकायत  दर्द की बात लिखता है  दर्द देने वाला.." ४.  "ख़ता तब से शुरू हो गयी बेइंतिहा       आजमाना जबसे जनाब ने शुरू किया.." देखें; 'श्रीश उवाच' पर- कि; चित्र साभार:गूगल 

"उन्माद की उड़नतश्तरी"

शुरू-शुरू में बस ब्लोगिंग क्या होती है; इस आशय से शुरू किया था. पर जब मैंने देखा कि एक विशाल और विज्ञ पाठक समूह जाल पर है और सक्रिय रूप से अपनी प्रखरता और सजगता के साथ लिख रहा है तो मै धीरे-धीरे यहाँ रमने लगा. फिर तो एक 'परिवार' मिला मुझे जहाँ स्नेह भी था और परामर्श  भी. यहाँ वरिष्ठ-कनिष्ठ का रिश्ता नहीं काम करता. एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी का संवाद यहाँ संभव हो रहा था. मै बस पुलकित हो लिखने लगा, पढ़ने लगा और सीखने लगा. आप सभी का आशीर्वाद अनवरत चाहूँगा... 'कहानी' विधा मुझे बहुत जंचती है पर इसका लेखन अत्यंत कठिन लगता रहा है मुझे...आप सभी के समक्ष यह मेरा  'प्रथम प्रयास'  प्रस्तुत है.."उन्माद की उड़नतश्तरी". कहानी में 'प्रेम' और 'उन्माद' प्रमुख पात्र हैं. यहाँ 'उन्माद' को मैंने 'स्त्रीलिंग' समझा है. आज के चट-पट, तकनीकी जीवन में कितना प्रेम रह गया है और केवल 'उन्माद' की प्रबलता रह गयी है..यही कहना चाहा है, मैंने....!!! "उन्माद की उड़नतश्तरी" मै   ' प्रेम '  हूँ ;  और   ये   ' उ