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संभव है, ईश्वर....

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संभव है, ईश्वर तुम बैठे होओ किनारे पर. सम्हाल रहे हो मेरी डगमग नाव. जूझ रहे होओ साथ लहर-लहर  सूझ तो नहीं रहा मुझे यह अबूझ अम्बर. लहरों के अनगिन थपेड़े नाव के ही नही, हिला देते हैं पोर-पोर मन की शिराओं के भी. ज़रा भी कम नही है भीतर भी झंझावात तर्क-कुतर्क के बह रहे पुरजोर प्रपात. संभव है, ईश्वर तुम मेरे अविश्वास से चिंतित भी होओ विलगित गलित हुए हो मेरे नकार से. और दुखी भी होगे कि मै देखना ही क्यूँ चाहता हूँ तुम्हें महसूसता क्यूँ नहीं लहरों पर पतवार के हर वार में. संशय के तर्कों को कुचलते अदम्य जिजीविषा के तर्कों के अहर्निश स्रोत में. पर क्या करूँ मै किंचित इन लहरों, नाना उत्पातों से अधिक भयभीत हूँ अकेलेपन के एहसास से. मुझे जरूरत होती है तुम्हें छूने, सुनने और देखने की क्योंकि अनित्य संसार में शंका स्वाभाविक है और अभी मेरी द्वैत से अद्वैत की समझ यात्रा भी तो बाकी है.  #श्रीश पाठक प्रखर